रक्षाबंधन, जिसे सावनी उत्सव के रूप में भी जाना जाता है, आज, सावन मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। यह मात्र एक धागे का बंधन नहीं, बल्कि भाई-बहन के बीच के प्रेम, विश्वास, त्याग और एक-दूसरे के प्रति समर्पण का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में युगों-युगों से मनाया जाने वाला यह पर्व हमारे प्राचीन वेदों और पुराणों में भी वर्णित है। यह भावनात्मक बंधन को पुनर्जीवित करने और रिश्तों की गरिमा को समझने का एक सुंदर अवसर है।
रक्षाबंधन का पौराणिक और ऐतिहासिक उद्भव
रक्षाबंधन के पर्व का इतिहास बहुत ही गहरा और समृद्ध है। इसका उल्लेख हमें विभिन्न पौराणिक कथाओं, महाकाव्यों और प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, ‘श्रवण’ नक्षत्र के कारण श्रावणी पूर्णिमा का नामकरण संस्कार हुआ। ज्योतिष के 27 नक्षत्रों में ‘श्रवण’ 22वाँ नक्षत्र है, जिसका स्वामी चंद्रमा है। इसे अत्यंत सुखद और फलदायी माना गया है। श्रावण की अधिष्ठात्री देवी द्वारा ग्रह-दृष्टि-निवारण के लिए महर्षि दुर्वासा ने रक्षाबंधन का विधान किया था। इसलिए, श्रावण मास की अंतिम तिथि वाली श्रवण नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को श्रावणी कहते हैं और इस दिन यह पर्व मनाया जाता है।
भविष्यपुराण में देवासुर संग्राम
भविष्यपुराण के अनुसार, देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय से रक्षाबंधन का अटूट संबंध है। इंद्र जब असुरों से युद्ध में पराजित हो रहे थे, तब उनकी पत्नी इन्द्राणी ने एक रक्षासूत्र बनाया। देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र के हाथों में उस सूत्र को बांधते हुए निम्नलिखित स्वस्तिवाचन किया:
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
इस श्लोक को आज भी रक्षाबंधन का अभीष्ट मंत्र माना जाता है। इस रक्षासूत्र के प्रभाव से इंद्र युद्ध में विजयी हुए। यह घटना दर्शाती है कि रक्षाबंधन का संबंध सिर्फ भाई-बहन से नहीं, बल्कि किसी भी प्रकार के संरक्षण और विजय से है।
भागवत पुराण और राजा बलि
भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार में राजा बलि से तीन पग भूमि मांगकर उन्हें पाताल लोक भेज दिया, तो वे उनके द्वारपाल बन गए। देवी लक्ष्मी ने अपने पति को वापस लाने के लिए नारद जी के सुझाव पर राजा बलि को राखी बांधी और उन्हें अपना भाई बनाया। इसके बाद, राजा बलि ने देवी लक्ष्मी के आग्रह पर भगवान विष्णु को वैकुंठ जाने की अनुमति दी। यह कथा संबंधों की शक्ति और त्याग को उजागर करती है।
‘रक्षिष्ये सर्वतोहं त्वां सानुगं सपरिच्छिदम्।
सदा सन्निहितं वीरं तत्र मां दृक्ष्यते भवान्॥’
(श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 8, अध्याय 23, श्लोक 33)
महाभारत में द्रौपदी और भगवान कृष्ण
महाभारत में द्रौपदी और भगवान कृष्ण के बीच का प्रसंग रक्षाबंधन के महत्व को एक नए आयाम में प्रस्तुत करता है। शिशुपाल का वध करते समय जब भगवान कृष्ण की तर्जनी उंगली से रक्त बहने लगा, तब द्रौपदी ने बिना किसी संकोच के अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर उनकी उंगली पर बांध दिया। इस कार्य से अभिभूत होकर कृष्ण ने द्रौपदी को हर संकट से बचाने का वचन दिया, जिसे उन्होंने चीर हरण के समय पूरा किया। यह घटना भाई-बहन के अटूट रिश्ते और रक्षा के वचन का एक श्रेष्ठ उदाहरण है।
विष्णु पुराण और हयग्रीव अवतार
विष्णु पुराण के एक प्रसंग के अनुसार, श्रावण पूर्णिमा के दिन ही भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर ब्रह्मा के लिए वेदों को फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
रक्षाबंधन का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
रक्षाबंधन का त्योहार केवल एक रस्म नहीं है, बल्कि यह परिवार और रिश्तों के महत्व को दर्शाता है। यह भाई-बहन के बीच के भावनात्मक जुड़ाव को मजबूत करता है और उन्हें एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों का स्मरण कराता है। यह पर्व सामाजिक सद्भाव और भाईचारे का भी प्रतीक है। वैदिक और पौराणिक काल में यह सिर्फ भाई-बहन तक ही सीमित नहीं था, बल्कि निरोगी रहने और बुरे समय से रक्षा के लिए योग्य ब्राह्मण भी यजमानों को रक्षा सूत्र बांधते थे।
इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधकर उसकी लंबी आयु, सुख-समृद्धि और सुरक्षा की कामना करती है, और भाई अपनी बहन की आजीवन रक्षा का वचन देता है। यह राखी सिर्फ रेशम की डोर नहीं, बल्कि एक ऐसा रक्षा कवच है, जिसमें भाई-बहन के अटूट और पवित्र प्रेम का सामर्थ्य छिपा होता है।
ब्राह्मणों का उपाकर्म
श्रावण पूर्णिमा के दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपाकर्म होता है। इस दिन ब्राह्मण अपने पवित्र जनेऊ बदलते हैं और एक बार पुनः धर्मग्रंथों के अध्ययन के प्रति स्वयं को समर्पित करते हैं। वे अपने यजमानों को रक्षा सूत्र बांधकर उनकी दीर्घायु और सुख-समृद्धि की प्रार्थना करते हैं। यह विधान समाज की आध्यात्मिक और नैतिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने का प्रतीक है।
सात प्रकार के रक्षा सूत्र
हमारे धर्म ग्रंथों में सात प्रकार के रक्षा सूत्र बताये गए हैं जिसमें – विप्र रक्षा सूत्र (वैदिक अनुष्ठान के बाद ब्राहमण द्वारा यजमान को), गुरु रक्षा सूत्र (गुरु द्वारा शिष्य को), मातृ-पितृ रक्षा सूत्र (माता-पिता द्वारा पुत्र को), भातृ रक्षा सूत्र (बड़े या छोटे भैया को), स्वसृ-रक्षा सूत्र (ब्राह्मण के रक्षा सूत्र बांधने के बाद बहन द्वारा भाई को), गौ रक्षा सूत्र (गौ माता को) तथा वृक्ष रक्षा सूत्र (वृक्ष को) है और रक्षाबंधन पर सात प्रकार की जरूरी चीजें भी शामिल हैं जिसमें – पानी का कलश, चंदन और कुमकुम, चावल, नारियल, रक्षा सूत्र अथवा राखी, मिठाई एवं दीपक. इस दिन पवित्र सरोवर या नदी में स्नान करने के पश्चात सूर्यदेव को अर्घ्य देना इस विधान का अभिन्न अंग है.
शुभ मुहूर्त और दुर्लभ संयोग
इस साल रक्षाबंधन का मुख्य पर्व आज, शनिवार, 9 अगस्त 2025 को मनाया जा रहा है। सावन की पूर्णिमा तिथि का शुभारंभ 8 अगस्त 2025 को दोपहर 2 बजकर 14 मिनट से हो चूका है, जो आज, 9 अगस्त 2025 को दोपहर 1 बजकर 26 मिनट पर समाप्त होगी। इस वर्ष बहनों के लिए एक बड़ी खुशी की बात यह है कि रक्षाबंधन पर भद्रा का कोई प्रभाव नहीं रहेगा, क्योंकि इस बार भद्रा का वास पाताल में होगा। बहनें पूरे दिन बिना किसी अशुभ मुहूर्त की चिंता के राखी बांध सकेंगी।
यह रक्षाबंधन ज्योतिषीय दृष्टि से भी अत्यंत दुर्लभ और शुभ संयोग वाला है। आज श्रवण नक्षत्र भी रहेगा। इस दिन चंद्रमा मकर राशि में रहेंगे, जिसके स्वामी शनि हैं और शनिवार का स्वामी भी शनि है। श्रवण नक्षत्र स्वयं शनि की राशि में आता है। शास्त्रों के अनुसार, श्रवण नक्षत्र के अधिपति भगवान विष्णु हैं, जबकि सौभाग्य योग के अधिपति ब्रह्मा हैं। इस प्रकार, यह पर्व ब्रह्मा जी और विष्णु जी की साक्षी में संपन्न होगा, जो इसे आध्यात्मिक दृष्टि से और भी पावन बना देता है। ज्योतिषीय दृष्टि से ऐसा संयोग लगभग 297 वर्ष पूर्व 1728 ई. में बना था।
रक्षाबंधन का पर्व हमें सिखाता है कि रिश्ते कितने अनमोल होते हैं और उन्हें कैसे सहेज कर रखना चाहिए। यह भाई-बहन के पवित्र प्रेम और अटूट बंधन का उत्सव है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी भारतीय संस्कृति में जीवंत रहेगा। यह सिर्फ एक धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का एक ऐसा ताना-बाना है जो जीवन भर भाई और बहन को एक-दूसरे से जोड़े रखता है, उन्हें सुरक्षा, प्रेम और समर्थन का एहसास कराता है। श्रावण पूर्णिमा का पूरा चाँद भाई-बहन के प्रेम को समर्पित होता है और उनके रिश्ते की पवित्रता को और गहरा करता है। यह पर्व हमें अपने कर्तव्यों और संबंधों के प्रति समर्पण की याद दिलाता है, जिससे समाज में प्रेम और सद्भाव बना रहे।
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