उत्तर प्रदेश के प्राचीन शहर काशी में मोक्ष की प्राप्ति के लिए विख्यात मणिकर्णिका घाट पर एक अनूठी परंपरा है, जो जीवन, मृत्यु और कर्म के गहन दर्शन को दर्शाती है। जब चिता शांत हो जाती है, तो मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति शांत भस्म पर एक विशिष्ट अंक ’94’ लिखता है। यह रिवाज सार्वभौमिक रूप से ज्ञात नहीं है; यह मुख्य रूप से खांटी बनारसी लोगों या स्थानीय निवासियों तक ही सीमित है, जबकि बाहर से आने वाले लोग अक्सर इस गहन प्रतीक से अनभिज्ञ रहते हैं। इस संख्या के पीछे भारतीय दर्शन में निहित कर्म के विभाजन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है।
कर्म का दर्शन: 94 कर्म मनुष्य के अधीन
भारतीय दर्शन के अनुसार, मनुष्य के जीवन में 100 शुभ कर्मों का एक ‘शतपथ’ होता है। यह माना जाता है कि व्यक्ति इन्हीं कर्मों के आधार पर अगला जीवन शुभ या अशुभ प्राप्त करता है। इन 100 कर्मों को दो भागों में विभाजित किया गया है:
- मनुष्य के अधीन कर्म (94): ये वे कर्म हैं जिन्हें करने या न करने में मनुष्य पूरी तरह से समर्थ और स्वतंत्र होता है। ये हमारे दैनिक चुनाव, नैतिकता, सेवा, और आध्यात्मिक प्रयास से जुड़े हैं।
- विधि (भाग्य) के अधीन कर्म (6): ये वे कर्म हैं जिनका परिणाम ईश्वर या प्रकृति के नियंत्रण में होता है, और मनुष्य अपने प्रयास से भी इन्हें पूरी तरह बदल नहीं सकता। ये 6 कर्म हैं: हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, और अपयश।
मणिकर्णिका घाट पर 100−6=94 लिखने का आशय यह है कि “आज, तुम्हारे वे 94 कर्म जो तुम्हारे अधीन थे, इस चिता के साथ भस्म हो गए हैं। आगे के 6 कर्म अब तुम्हारे लिए नया जीवन सृजित करेंगे।” यह क्रिया मृतक को विदाई देते हुए यह घोषणा करती है कि उसने अपनी मानवीय क्षमता के अधीन सभी कर्मों को पूर्ण कर लिया है।
‘6’ तत्त्वों का विदाई संदेश
इस परंपरा को श्रीमद्भगवद्गीता के एक विचार से भी बल मिलता है। गीता के अनुसार, मृत्यु के बाद आत्मा अपने साथ मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) को लेकर जाती है। ये मिलकर कुल छः (6) तत्त्व होते हैं, जो सूक्ष्म शरीर के रूप में आत्मा के साथ अगले जन्म की ओर प्रस्थान करते हैं।
चूंकि अगला जन्म कहाँ, कब, और किन परिस्थितियों में होगा, यह प्रकृति के अतिरिक्त किसी को ज्ञात नहीं होता, इसलिए ’94’ का अंक यह दर्शाता है कि 94 कर्मों का फल यहीं शेष हो गया है, जबकि ये 6 तत्त्व (मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ) यात्री के साथ जा रहे हैं। यही कारण है कि अंतिम विदाई देते हुए यह भाव व्यक्त किया जाता है: “विदा यात्री। तुम्हारे 6 कर्म तुम्हारे साथ हैं।”
यह कर्म-सिद्धांत मनुष्य को जीवन में हमेशा सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है। नीचे इन 100 शुभ कर्मों का विस्तृत विवरण दिया गया है:
मनुष्य के अधीन 94 शुभ कर्म
इन 94 शुभ कर्मों को पाँच मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जो मनुष्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं—आध्यात्मिक, नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक और परोपकारी—को समाहित करते हैं।
I. धर्म और नैतिकता के कर्म (20)
ये कर्म व्यक्ति के आचरण (Conduct), सत्यनिष्ठा (Integrity) और आत्म-नियंत्रण (Self-Control) से संबंधित हैं।
- सत्य बोलना: सदैव सत्य का पालन करना और झूठ से दूर रहना।
- अहिंसा का पालन: मन, वचन और कर्म से किसी भी जीव को कष्ट न पहुँचाना।
- अस्तेय (चोरी न करना): किसी भी रूप में दूसरों की संपत्ति या अधिकार का हरण न करना।
- अपरिग्रह (लोभ से बचना): आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना।
- क्रोध पर नियंत्रण: विषम परिस्थितियों में भी अपने मन को शांत रखना।
- क्षमा करना: दूसरों की गलतियों को माफ कर देना और वैर-भाव न रखना।
- दया भाव रखना: सभी प्राणियों के प्रति करुणा और सहानुभूति रखना।
- शौच (बाह्य और आन्तरिक शुद्धि): शरीर और मन दोनों को स्वच्छ और पवित्र रखना।
- संतोष (तृप्ति): जो कुछ प्राप्त है, उसमें संतुष्ट रहना।
- दूसरों की सहायता करना: निस्वार्थ भाव से जरूरतमंदों के काम आना।
- दान देना: (अन्न, वस्त्र, धन, ज्ञान) अपनी कमाई का एक अंश धर्मार्थ कार्यों में लगाना।
- गुरु की सेवा: अपने शिक्षक, मार्गदर्शक और ज्ञान देने वाले के प्रति समर्पित रहना।
- माता-पिता का सम्मान: उनकी आज्ञा मानना, देखभाल करना और उन्हें प्रसन्न रखना।
- अतिथि सत्कार: घर आए मेहमान का आदरपूर्वक स्वागत और सेवा करना।
- धर्मग्रंथों का अध्ययन: धार्मिक, आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा देने वाले ग्रंथों को पढ़ना।
- वेदों और शास्त्रों का पाठ: ज्ञान की प्राप्ति हेतु नियमित रूप से स्वाध्याय करना।
- तीर्थ यात्रा करना: धार्मिक स्थानों की यात्रा कर पुण्य अर्जित करना।
- यज्ञ और हवन करना: वातावरण की शुद्धि और धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करना।
- मंदिर में पूजा-अर्चना: ईश्वर के प्रति अपनी आस्था और भक्ति व्यक्त करना।
- पवित्र नदियों में स्नान: शरीर और मन की शुद्धि के लिए धार्मिक स्नान करना।
II. सामाजिक और पारिवारिक कर्म (20)
ये कर्म व्यक्ति की कर्तव्यनिष्ठा (Dutifulness), जिम्मेदारी (Responsibility) और सामाजिक सामंजस्य (Social Harmony) को मजबूत करते हैं।
- परिवार का पालन-पोषण: अपने परिवार की भौतिक और भावनात्मक आवश्यकताओं को पूरा करना।
- बच्चों को अच्छी शिक्षा देना: उन्हें नैतिक, आध्यात्मिक और सांसारिक ज्ञान से सुसज्जित करना।
- गरीबों को भोजन देना: अन्न दान को परम धर्म मानते हुए भूखों की क्षुधा शांत करना।
- रोगियों की सेवा: बीमार और असहाय लोगों की सहायता और देखभाल करना।
- अनाथों की सहायता: अनाथ और बेसहारा बच्चों को आश्रय और सुरक्षा प्रदान करना।
- वृद्धों का सम्मान: समाज के वयोवृद्ध व्यक्तियों के अनुभव और सम्मान को महत्व देना।
- समाज में शांति स्थापना: दो पक्षों के बीच सुलह कराना और सद्भाव को बढ़ावा देना।
- झूठे वाद-विवाद से बचना: व्यर्थ के तर्क-वितर्क और झगड़ों में शामिल न होना।
- दूसरों की निंदा न करना: किसी की अनुपस्थिति में उसकी बुराई या आलोचना न करना।
- सत्य और न्याय का समर्थन: हर कीमत पर सच्चाई और न्याय के पक्ष में खड़ा होना।
- परोपकार करना: दूसरों की भलाई के लिए कार्य करना, चाहे उससे व्यक्तिगत लाभ न हो।
- सामाजिक कार्यों में भाग लेना: समाज के सामूहिक उत्थान के प्रयासों में योगदान देना।
- पर्यावरण की रक्षा: प्रकृति और पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के प्रति जागरूक रहना।
- वृक्षारोपण करना: पेड़ लगाना और उनकी देखभाल करना।
- जल संरक्षण: पानी को बर्बाद न करना और उसके स्रोतों को सुरक्षित रखना।
- पशु-पक्षियों की रक्षा: वन्यजीवों और घरेलू पशुओं के प्रति क्रूरता से बचना।
- सामाजिक एकता को बढ़ावा देना: जाति, धर्म, या वर्ग के भेदभाव से ऊपर उठना।
- दूसरों को प्रेरित करना: सकारात्मक विचारों और कार्यों के माध्यम से लोगों को उत्साहित करना।
- समाज में कमजोर वर्गों का उत्थान: वंचितों को शिक्षा, रोजगार और अवसर दिलाने में मदद करना।
- धर्म के प्रचार में सहयोग: नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के प्रसार में मदद करना।
III. आध्यात्मिक और व्यक्तिगत कर्म (20)
ये कर्म व्यक्ति की आत्मा की शुद्धि (Soul Purification), मानसिक शांति (Mental Peace) और आत्म-ज्ञान (Self-Realization) की ओर ले जाते हैं।
- नियमित जप करना: किसी मंत्र या नाम का निरंतर मानसिक या वाचिक जाप करना।
- भगवान का स्मरण: हर समय ईश्वर को याद रखना और उसमें लीन रहना।
- प्राणायाम करना: श्वास-प्रश्वास को नियंत्रित कर शरीर और मन को स्थिर करना।
- आत्मचिंतन: अपने विचारों, कार्यों और प्रेरणाओं का गहराई से विश्लेषण करना।
- मन की शुद्धि: नकारात्मक भावनाओं जैसे ईर्ष्या, द्वेष और घृणा को दूर करना।
- इंद्रियों पर नियंत्रण: पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को विषय-वासनाओं की ओर भटकने से रोकना।
- लालच से मुक्ति: धन और भौतिक सुखों के प्रति अत्यधिक आसक्ति से दूर रहना।
- मोह-माया से दूरी: क्षणभंगुर सांसारिक रिश्तों और वस्तुओं के प्रति लगाव कम करना।
- सादा जीवन जीना: आडंबर और प्रदर्शन से दूर रहकर सरल जीवन अपनाना।
- स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन): स्वयं को जानने और अपने ज्ञान को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना।
- संतों का सान्निध्य: ज्ञानी और धार्मिक लोगों की संगति में समय बिताना।
- सत्संग में भाग लेना: धार्मिक और आध्यात्मिक चर्चाओं को सुनना और उनमें शामिल होना।
- भक्ति में लीन होना: ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना को बढ़ाना।
- कर्मफल भगवान को समर्पित करना: किसी भी कार्य के परिणाम की चिंता न करते हुए उसे ईश्वर को सौंप देना।
- तृष्णा का त्याग: अतृप्त इच्छाओं और वासनाओं को त्यागना।
- ईर्ष्या से बचना: दूसरों की सफलता या खुशी से जलन महसूस न करना।
- शांति का प्रसार: अपने आस-पास और स्वयं के भीतर शांति बनाए रखना।
- आत्मविश्वास बनाए रखना: अपनी क्षमताओं और ईश्वर पर पूर्ण भरोसा रखना।
- दूसरों के प्रति उदारता: दयालुता और दरियादिली का व्यवहार करना।
- सकारात्मक सोच रखना: हर स्थिति में अच्छा देखना और आशावादी रहना।
IV. सेवा और दान के कर्म (20)
ये कर्म परोपकार (Altruism), त्याग (Sacrifice) और समाज के निर्माण (Construction) पर केंद्रित हैं।
- भूखों को भोजन देना: अन्नदाता बनकर भूख से पीड़ित व्यक्ति की सहायता करना।
- नग्न को वस्त्र देना: सर्दी या आवश्यकता में वस्त्रहीन लोगों को कपड़े उपलब्ध कराना।
- बेघर को आश्रय देना: निराश्रितों को रहने के लिए जगह या शरणार्थी शिविरों में मदद करना।
- शिक्षा के लिए दान: विद्यालयों, छात्रों या शिक्षण सामग्री के लिए वित्तीय सहायता देना।
- चिकित्सा के लिए सहायता: गरीबों के इलाज या चिकित्सा शिविरों के लिए धन प्रदान करना।
- धार्मिक स्थानों का निर्माण/रखरखाव: मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि के निर्माण या जीर्णोद्धार में सहयोग।
- गौ सेवा: गायों की देखभाल और उन्हें चारा-पानी उपलब्ध कराना।
- पशुओं को चारा देना: आवारा पशुओं और पक्षियों के लिए भोजन-पानी की व्यवस्था करना।
- जलाशयों की सफाई: तालाबों, कुओं और अन्य जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाना।
- रास्तों का निर्माण: जनसुविधा के लिए सड़कों और पुलों के निर्माण में योगदान।
- यात्री निवास बनवाना: यात्रियों और तीर्थयात्रियों के लिए ठहरने की व्यवस्था करना।
- स्कूलों को सहायता: ग्रामीण या कमजोर क्षेत्रों के स्कूलों को उपकरण और वित्तीय मदद देना।
- पुस्तकालय स्थापना: ज्ञान के प्रसार के लिए पुस्तकालयों की स्थापना करना।
- धार्मिक उत्सवों में सहयोग: सामाजिक सद्भाव बढ़ाने वाले त्योहारों और मेलों में सक्रिय योगदान।
- गरीबों के लिए निःशुल्क भोजन: सामुदायिक रसोई (लंगर) या भंडारे का आयोजन करना।
- वस्त्र दान: विशेष आयोजनों पर सामूहिक वस्त्र वितरण करना।
- औषधि दान: जरूरतमंदों को मुफ्त दवाइयाँ उपलब्ध कराना।
- विद्या दान: नि:शुल्क ज्ञान, कौशल या परामर्श देना।
- कन्या दान: अपनी पुत्री का विवाह सुयोग्य वर के साथ करना (परंपरागत शुभ कर्म)।
- भूमि दान: सार्वजनिक, शैक्षिक या धार्मिक कार्यों के लिए भूमि दान करना।
V. नैतिक और मानवीय कर्म (14)
ये कर्म व्यक्ति के चरित्र (Character) और मानवीय मूल्यों (Human Values) की दृढ़ता को प्रकट करते हैं।
- विश्वासघात न करना: किसी के भरोसे को न तोड़ना और धोखा न देना।
- वचन का पालन: किए गए वादों और प्रतिज्ञाओं को हर हाल में निभाना।
- कर्तव्यनिष्ठा: अपने निर्धारित दायित्वों (Duties) को पूरी ईमानदारी और लगन से निभाना।
- समय की प्रतिबद्धता: समय का पाबंद होना और किसी भी कार्य को समय पर पूरा करना।
- धैर्य रखना: कठिन परिस्थितियों में भी शांति और सहनशीलता बनाए रखना।
- दूसरों की भावनाओं का सम्मान: किसी को ठेस न पहुँचाना और उनकी गरिमा का ध्यान रखना।
- सत्य के लिए संघर्ष: यदि आवश्यक हो तो सच्चाई की रक्षा के लिए लड़ना।
- अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना: जहाँ भी गलत हो रहा हो, उसका विरोध करना।
- दुखियों के आँसू पोंछना: शोक या पीड़ा में डूबे लोगों को सांत्वना देना।
- बच्चों को नैतिक शिक्षा: भावी पीढ़ी को अच्छे और बुरे का ज्ञान देना।
- प्रकृति के प्रति कृतज्ञता: जल, वायु, भूमि और सूर्य जैसे प्राकृतिक तत्वों के प्रति आभार व्यक्त करना।
- दूसरों को प्रोत्साहन: किसी को उसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना।
- मन, वचन, कर्म से शुद्धता: सोच, बोल और कार्य तीनों में पवित्रता बनाए रखना।
- जीवन में संतुलन बनाए रखना: भौतिकता और आध्यात्मिकता, काम और विश्राम के बीच सामंजस्य स्थापित करना।
ये 94 कर्म मनुष्य को उसके जीवनकाल में करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं और इन्हीं के आधार पर कर्मफल का निर्धारण होता है, जबकि शेष 6 कर्म (हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश) विधि के अधीन माने जाते हैं।

विधि (भाग्य) के अधीन 6 अटल कर्म
ये 6 कर्म जीवन के वे महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, जिन्हें व्यक्ति अपने सर्वोत्तम मानवीय प्रयासों के बावजूद, पूरी तरह से बदल नहीं सकता। ये दैव, काल, या प्रकृति के नियंत्रण में होते हैं।
95. हानि : अपेक्षित नुकसान या असफलता। यह वह कर्मफल है जब व्यक्ति सभी तरह के प्रयास, योजना और सावधानी बरतने के बावजूद किसी चीज़ में नुकसान उठाता है। यह धन, स्वास्थ्य, प्रतिष्ठा, या किसी महत्वपूर्ण अवसर की हानि हो सकती है। यह माना जाता है कि हानि का क्षण और उसकी तीव्रता भाग्य द्वारा पूर्व निर्धारित होती है, जिस पर मनुष्य का सीधा नियंत्रण नहीं होता।
96.लाभ : अपेक्षित या अप्रत्याशित सफलता या प्राप्ति। यह वह कर्मफल है जब व्यक्ति को उसकी योग्यता और प्रयास से अधिक या अप्रत्याशित रूप से कुछ प्राप्त होता है, चाहे वह धन, पद, सम्मान, या अवसर हो। यह दर्शाता है कि लाभ का मिलना केवल प्रयास पर नहीं, बल्कि समय और दैव की कृपा पर भी निर्भर करता है।
97.जीवन : मनुष्य का जन्म और उसकी परिस्थितियाँ। यह कर्म यह निर्धारित करता है कि किसी आत्मा का जन्म कब, कहाँ, किस परिवार में, किस देश में, और किन शारीरिक-मानसिक क्षमताओं के साथ होगा। व्यक्ति स्वयं यह चुनाव नहीं कर सकता कि वह राजा के घर जन्मेगा या निर्धन के घर, स्वस्थ होगा या रोगी। यह जन्म की परिस्थितियाँ पूर्णतः भाग्य के अधीन मानी जाती हैं।
98. मरण : जीवन का अंत और उसकी विधि। यह वह अटल सत्य है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। मृत्यु का समय (काल), स्थान, और कारण (चाहे वह प्राकृतिक हो या आकस्मिक) विधि द्वारा निर्धारित होता है। मनुष्य इसे टालने के लिए चिकित्सा या अन्य प्रयास कर सकता है, लेकिन अंतिम क्षण पर कोई नियंत्रण नहीं होता।
99. यश : अत्यधिक प्रसिद्धि और कीर्ति की प्राप्ति। यह कर्म किसी व्यक्ति को उसके क्षेत्र में असाधारण सम्मान और व्यापक पहचान दिलाता है। यह केवल प्रयास का परिणाम नहीं होता, बल्कि एक ऐसा भाग्य होता है जो किसी को जन-जन में पूज्य बना देता है। कई योग्य व्यक्ति प्रयास करते हैं, पर यश केवल दैव इच्छा से ही प्राप्त होता है।
100. अपयश : अकारण बदनामी या सम्मान की हानि। यह वह कर्मफल है जब व्यक्ति को बिना किसी गंभीर गलती के भी अपमान, तिरस्कार, या बदनामी का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी व्यक्ति अपनी गलती से बच निकलता है, तो कभी-कभी निर्दोष होने पर भी बदनामी मिलती है। यह परिणाम भी भाग्य के अधीन माना जाता है।
इस प्रकार, मणिकर्णिका घाट का ’94’ का अंक सिर्फ एक संख्या नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक घोषणा है—एक अंतिम स्मरण कि मनुष्य को अपने नियंत्रण वाले कर्मों को श्रेष्ठ बनाना चाहिए, जबकि शेष 6 को विधि के अधीन छोड़ देना चाहिए।
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